रविवार व्रत कथा: सूर्य देव की पूजा, विधि और महत्व

रविवार का व्रत सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला है। मान सम्मान में वृद्धि और शत्रु क्षय करने वाला व्रत रविवार का व्रत कहलाता है। 

प्रात: काल स्नानादि से निवृत होकर  स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पवित्र स्थान को लीपकर भगवान सूर्य देव की पूजा करें। शांत चित होकर परमात्मा का स्मरण करें। 

भोजन एक समय ही करें, तेल व नमक युक्त भोजन न ग्रहण करें। भोजन तथा फलाहार सूर्य अस्त होने से पहले ही कर लेना चाहिए। 

यदि भोजन करने से पहले सूर्य छिप जाए तो दूसरे दिन सूर्य के उदय हो जाने पर सूर्य देव को अर्घ्य देने के बाद ही भोजन करें। व्रत के अंत में कथा सुननी चाहिए। 



रविवार व्रत की कथा 

एक बुढ़िया थी। वह प्रत्येक रविवार को सवेरे ही गोबर से घर लीपकर, स्नान आदि कर भगवान की पूजा करती थी। फिर भोजन तैयार कर भगवान को भोग लगाकर, स्वयं भोजन करती थी। 

श्री हरि की कृपा से उसका घर सभी प्रकार के सुख एवं धन धान्य से पूर्ण था और किसी प्रकार का कोई विघ्न या दुःख नहीं था। घर में सब प्रकार से आनंद रहता था। 

उसकी एक पड़ोसन, जिसकी गाय का गोबर वह बुढ़िया रोज लाया करती थी, उस बुढ़िया की संपन्नता से जलने लगी। 

वह विचार करने लगी की यह बुढ़िया रोज मेरी गाय का गोबर ले जाती है, इसलिए अगले ही दिन से वह अपनी गाय को अपने घर के भीतर बांधने लगी। 

वह रविवार का दिन था। बुढ़िया गाय का गोबर न मिलने के कारण अपने घर को लीप न सकी। उस दिन उसने न तो भोजन बनाया और न स्वयं भोजन किया। 

इस प्रकार उसने निराहार व्रत किया। रात्रि हो गई और वह बुढ़िया भूखी ही सो गई। रात्रि में सूर्य भगवान ने उसे स्वपन में दर्शन दिए और भोजन  न बनाने और और भोग न लगाने का कारण पूछा। 

बुढ़िया ने कहा कि उसे गोबर नही मिला और इस कारण वह आपका भोग न लगा सकी। 

तब सूर्य भगवान ने कहा कि हे माता ! हम तुमको ऐसी गाय देते हैं जो सभी इच्छाएं पूर्ण करती है, क्योंकि तुम हमेशा रविवार को पूरा घर गाय के गोबर से लीपकर, भोजन बनाकर और मेरा भोग लगाकर ही स्वयं भोजन करती हो, इससे में बहुत प्रसन्न हूं। 

मैं निर्धन को धन और बांझ स्त्रियों को पुत्र देकर उनके दुखों को दूर करता हूं तथा अंत समय में मोक्ष देता हूं। बुढ़िया को स्वप्न में ऐसा वरदान देकर सूर्य देव अंतर्ध्यान हो गए। 

प्रात:काल जब उस बुढ़िया की आंख खुली तो उसने देखा कि उसके घर के आंगन में एक अति सुन्दर गाय और बछड़ा बंधे हुए है। 

गाय और बछड़े को देखकर वह वृद्धा अत्यंत प्रसन्न हुई और उनको घर के बाहर बांध दिया और उनके खाने के लिए चारा भी डाल दिया। 

जब उसकी पड़ोसन ने बुढ़िया के घर के बाहर एक अति सुन्दर गाय और बछड़े को बंधा देखा तो द्वेष के कारण उसका ह्रदय जल उठा। 

जब उसने देखा कि गाय ने सोने का गोबर किया है तो वह चोरी से उस गाय का गोबर उठाकर ले गई और अपनी गाय का गोबर उठाकर उसकी जगह रख गई। 

वह प्रतिदिन ऐसा ही करती। सीधी साधी बुढ़िया को उसकी इस चालाकी की खबर तक नहीं हुई। सर्वव्यापी ईश्वर ने सोचा कि चालाक पड़ोसन के कर्म से बुढ़िया ठगी जा रही है। 

एक दिन सूर्य भगवान ने संध्या के समय अपनी माया से बड़े जोर की आंधी चला दी। बुढ़िया ने आंधी के भय से अपनी गाय और बछड़े को घर के भीतर बांधने लगी।

पड़ोसन ने देखा कि बुढ़िया गाय को घर के भीतर बांधने लगी है और उसका सोने का गोबर उठाने का दांव नही चलता तो वह ईर्ष्या और डाह से जल उठी। 

अन्य कोई उपाय न देख पड़ोसन ने उस देश के राजा की सभा में जाकर कहा "महाराज मेरे पड़ोस में एक वृद्धा के पास ऐसी गाय है जो नित्य सोने का गोबर देती है। 

आप वह सोना प्राप्त कर उससे प्रजा का पालन करिए। वह वृद्धा इतने सोने का क्या करेगी।"

उसकी बात सुनकर राजा ने अपने दूतों को उस बुढ़िया के घर से गाय लाने का आदेश दिया। बुढ़िया प्रात: भगवान का भोग लगा भोजन ग्रहण करने जा रही थी कि राजा के कर्मचारी गाय और बछड़े को खोलकर ले गए। 

वृद्धा बहुत रोई-चिल्लाई किंतु राजा के कर्मचारियों के सामने भला कोई क्या कहता? उस दिन वृद्धा गाय के वियोग में भोजन न कर सकी और रात भर रो-रोकर ईश्वर से गाय को पुन: पाने के लिए प्रार्थना करती रही। 

राजा सोने का गोबर देने वाली गाय को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ लेकिन अगले ही दिन सुबह जैसे ही वह उठा तो उसे सारा महल गोबर से भरा दिखाई देने लगा। 

राजा यह देखकर घबरा गया। सूर्य भगवान ने रात्रि में राजा को स्वपन मैं कहा - "हे राजा ! इस गाय को उस वृद्धा को लौटाने में ही तेरा भला हैं। उसके रविवार के व्रत से प्रसन्न होकर मैंने यह गाय उसे दी थी।" 

प्रात: होते ही राजा ने वृद्धा को महल में बुलाकर बहुत से धन के साथ सम्मान सहित गाय-बछड़ा उसे लौटा दिया और अपने कार्य के लिए क्षमा प्रार्थना की। 

इसके बाद राजा ने उसकी पड़ोसन को बुलाकर उचित दंड दिया। इतना करने के बाद राजा के महल से गंदगी दूर हुई।  

उसी दिन से राजा ने सभी नगर निवासियों को आदेश दिया कि राज्य की समृद्धि और अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए रविवार का व्रत करें। 

रविवार को सूर्य भगवान का व्रत करने से नगर के सभी लोग सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। अब कोई बीमारी या प्राकृतिक प्रकोप उस नगर पर नहीं होता था और सारी प्रजा सुख समृद्धि से रहने लगी। 

 रविवार व्रत की आरती 

कहुं लगि आरती दास करेंगे
सकल जगत जाकी जोति विराजे
सात समुद्र जाके चरण बसे 
काह भयो जल कुंभ भरे हो राम
कोटि भानु जाके नख की  शोभा
कहा भयो मंदिर दीप धरे हो राम
भार अठारह रामा बलि जाके
कहा भयो शिर पुष्पधरे हो राम
छप्पन भोग जाके प्रतिदिन लागे 
कहा भयो नैवेद्य धरे हो राम
अमित कोटि जाके बाजा बाजें
कहा भयो झंकारा करे हो राम
चार वेद जाके मुख की शोभा
कहा भयो ब्रह्मवेद पढ़े हो राम 
शिव सनकादिक आदि ब्रह्मादिक
नारद मुनि जाको ध्यान धरे हो राम
हिम मंदार जाके पवन झंकोरे 
कहा भयो शिव चंवर ढुरे हो राम
लख चौरासी बन्ध छुड़ाए
केवल हरियश नामदेव गाए हो राम

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